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राम जहां-जहां गए, अब वहां क्या:जनकपुर में रंगभूमि, हंपी में सीता के कपड़ों के निशान, श्रीलंका में रावण का खजाना

 

राम जहां-जहां गए, अब वहां क्या:जनकपुर में रंगभूमि, हंपी में सीता के कपड़ों के निशान, श्रीलंका में रावण का ख

 

अयोध्या में आज, यानी 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हो गई है। राम का जन्म भले ही अयोध्या में हुआ, लेकिन ऐसी कई जगह हैं, जो राम कहानी में बेहद अहम हैं। दैनिक भास्कर की टीम भारत, नेपाल और श्रीलंका की ऐसी 10 जगहों पर पहुंची। यहां हमें न सिर्फ राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान के निशान मिले, बल्कि ऐसी कहानियां, कुंड और मंदिर मिले, जिनके बारे में शायद आपने कभी सुना ही न 

अयोध्या...वो जगह जहां राम पैदा हुए, उनका बचपन बीता। इसी जगह से उन्हें 14 साल के वनवास पर जाना पड़ा। आखिर में बैकुंठ जाने से पहले इसी नगरी के बीच से बहने वाली सरयू नदी में उन्होंने जल समाधि ले ली। भगवान राम की जन्म की कहानियां अयोध्या के अखाड़ों, मठों और गलियों में बसी हैं।

राम मंदिर के मुख्य पुजारी महाराज सत्येंद्र दास बताते हैं, ‘मनु और शतरूपा ने कठिन तपस्या की थी। इससे खुश होकर भगवान प्रकट हुए। उनके सामने दोनों ने वरदान मांगा-

दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउं सतिभाउ। चाहउं तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥

इसका अर्थ है - हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान। हे नाथ...मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूं कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूं। प्रभु से भला क्या छिपाना।

मनु की बात सुनकर भगवान खुश हुए, उन्होंने दोनों को वरदान दिया कि-

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले। आपु सरिस खोजौं कहं जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥

इसका अर्थ है - ऐसा ही होगा…हे राजन्‌। मैं अपने समान (दूसरा) कहां जाकर खोजूं। इसलिए खुद ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूंगा। इसके बाद सतयुग में मनु ने दशरथ और शतरूपा ने कौशल्या रूप में जन्म लिया। उनसे जो पुत्र हुआ, वह भगवान के समान था। नाम था- राम।

सत्येंद्र दास कहते हैं, ‘दशरथ की 3 रानियों से राम समेत 4 पुत्र हुए। चारों अयोध्या में पले-बढ़े। जवान होने पर राम शिक्षा ग्रहण करने महर्षि विश्वामित्र के आश्रम चले गए।

 

राम ने जहां ताड़का का वध किया था, वो इलाका आज बिहार के बक्सर जिले में माना जाता है। बक्सर में हमारी मुलाकात पंडित विद्याशंकर चौबे से हुई। विद्याशंकर चौबे बताते हैं, ‘त्रेता युग में बक्सर का नाम बामनाश्रम था। ये ऋषि-महर्षियों का गढ़ था। तपोभूमि होने के बावजूद यहां राक्षस ऋषियों को तंग कर रहे थे। यज्ञ कुंड में हड्डी, मांस के टुकड़े फेंक देते थे।

महर्षि विश्वामित्र ने महाराजा दशरथ को ये परेशानी बताई और राम-लक्ष्मण को अपने साथ बक्सर ले आए। राम ने यहां सबसे पहले ताड़का का वध किया। ताड़का का वध करने के लिए राम पर ब्राह्मणी हत्या का दोष लगा था। इसके पश्चाताप के लिए राम ने बक्सर के रामरेखा घाट पर गंगा स्नान किया। राम और लक्ष्मण ने सिर भी मुंडवाया था। इसके बाद उनसे ब्राह्मणी हत्या का दोष हटा था।

अहिल्या उद्धार
ताड़का वध के बाद राम ने पांच ऋषियों के आश्रम की यात्रा की थी। कहानी ये है कि विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण को सीता स्वयंवर दिखाने जनकपुर ले जा रहे थे। राम सबसे पहले बिहार के दरभंगा जिले के अहियारी गांव पहुंचे।

बिहार राज्य धार्मिक न्यास समित, दरभंगा के सचिव हेमंत झा बताते हैं, ‘अहियारी गांव पहुंचने पर राम ने विश्वामित्र से पूछा कि यहां की जमीन पत्थर क्यों है? विश्वामित्र ने राम को बताया कि कई साल से यहां कोई आपका इंतजार कर रहा है। विश्वामित्र से अहिल्या की कहानी सुनते ही राम सीधे अहिल्या के आश्रम पहुंचे। उनके चरण स्पर्श से ही अहिल्या गौतम ऋषि के श्राप से मुक्त हो गईं।’

महिला पंडित करती हैं पूजा
अहियारी गांव में अहिल्या माता का मंदिर है। इसकी खासियत है कि यहां महिला पंडित ही पूजा करती हैं। मंदिर की पंडित रेखा देवी मिश्रा बताती, ‘पहले मेरी सास यहां पूजा कराती थीं। उनकी उम्र 105 साल हो गई है, इसलिए मेरी बहू पंडित है। वो पति के साथ अयोध्या गई है। इसीलिए अगले कुछ महीनो के लिए मैं यहां की पंडित हूं।'

 

अहियारी गांव में अहिल्या माता का मंदिर। इस मंदिर में महिलाएं ही पुजारी होती हैं। अभी रेखा देवी मिश्रा यहां पूजा करती हैं।

रेखा देवी मिश्रा बताती हैं, 'अहिल्या मां एक सुहागन थीं। सभी पुरुष उनके बेटे जैसे हैं, इसलिए वे उन्हें सिंदूर और बिंदी नहीं लगा सकते, इसलिए यहां महिलाएं ही पूजा करवाती हैं।'

मंदिर के पीछे अहिल्या कुंड है। इसके बारे में लोगों ने बताया कि यहां कुल 5 कुंड हैं। मान्यता है कि इनमें स्नान करने से रोग दूर हो जाते हैं।

 

अहियारी गांव में बना अहिल्या कुंड। लोग मानते हैं कि कुंड का रास्ता सीधे पाताल लोक की ओर जाता है।

दरभंगा महाराज ने अहिल्या मंदिर के सामने एक और पहेलियां मां का मंदिर बनवाया था। इसमें भगवान राम के साथ सीता, लक्ष्मण, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, हनुमान और गौतम ऋषि भी मौजूद हैं। यह मंदिर करीब 500 साल पुराना है। हालांकि इस मंदिर की स्थिति अब बहुत अच्छी नहीं है।

अहिल्या मंदिर से करीब 3 किमी दूर गौतम ऋषि का आश्रम और गौतम कुंड है। जो आज के समय में सिद्ध पीठ महर्षि गौतम आश्रम के नाम से जाना जाता है। आश्रम के बाहर ही गौतम कुंड है। यहां हर साल महोत्सव के दौरान भीड़ उमड़ती है।

पंचकोशी यात्रा
राम सबसे पहले अहिल्या आश्रम गए, जहां उन्होंने पुआ-पकवान खाया था। इसके बाद वे नारद ऋषि के आश्रम नदवा गए। यहां खिचड़ी खाई। नदवा से निकलने के बाद भभुअर गांव में भार्गव ऋषि के आश्रम गए। वहां उन्होंने चूड़ा-दही खाया। यहां से वे उनाव गांव में उद्दालक ऋषि के आश्रम गए और सत्तू-मूली खाया था। सबसे आखिर में भगवान राम ने आनंदमय में विश्वामित्र स्थान पर लिट्टी-चोखा खाया था।

ये गांव पांच कोस या 15 किमी में फैले हैं। यहां हर साल पंचकोशी यात्रा की जाती है। 5 दिनों के दौरान भक्त वही खाना खाते हैं, जो भगवान राम ने खाया था। यहीं से राम सीता स्वयंवर के लिए नेपाल के जनकपुर गए थे।

 

नेपाल की राजधानी काठमांडू से 225 और अयोध्या से 518 किमी दूर जनकपुर है। इस शहर की सबसे मशहूर जगह है जानकी मंदिर। चंद कदमों की दूरी पर रंगभूमि है। जानकी मंदिर आने वाले लोग रंगभूमि भी जाते हैं। इसी जगह राम ने शिव धनुष तोड़ा था।

 

माना जाता है कि इसी जगह राम ने विवाह के पहले शिवजी का पिनाक धनुष तोड़ा था। ये बड़ा मैदान है, जिसे खाली रखा गया है।

जनकपुर धाम के कार्यकारी महंत रामरोशन दास बताते हैं, ‘रंगभूमि को 12 बीघा के नाम से भी जाना जाता है। रामायण के मुताबिक, इस विशाल मैदान में ही तमाम राजा-महाराजा मां सीता से विवाह की इच्छा लेकर आए थे। मैदान से तीन किमी दूर मणिमंडपम में स्वयंवर हुआ था।’

मणिमंडपम
रंगभूमि के बाद हम मणिमंडपम पहुंचे। चारों तरफ हरियाली से घिरे मणिमंडपम के सामने एक तालाब है। मंदिर में राम-सीता के सुंदर मूर्ति है। मंदिर में महंत की भूमिका निभा रहीं राजकुमारी देवी कहती हैं, ‘रामायण से लेकर तमाम धार्मिक ग्रंथों में इसका जिक्र है कि राम-सीता की शादी का स्थान यही है। यहीं फेरे हुए थे। मंदिर के सामने जो तालाब है, वहीं पग फेरे की रस्म हुई थी।’

 

मणिमंडपम के बारे में माना जाता है कि इसी जगह राम सहित चारों भाइयों का विवाह हुआ था।

धनुषा धाम
मणिमंडपम के बाद हम धनुषा धाम पहुंचे। धनुषा धाम जनकपुर से 20 किमी दूर है। माना जाता है कि जब शिव का धनुष टूटा तो उसका एक भाग यहीं गिरा था। यहां अब भी पिनाक धनुष के अवशेष पत्थर के रूप में मौजूद हैं।

धनुषा धाम के महंत भरत दास के मुताबिक, ‘पिनाक धनुष महर्षि दधीचि की अस्थियों से बना था। शिव ने ये धनुष परशुराम को और परशुराम ने राजा जनक को दिया था। स्वयंवर में राम ने इसे तोड़ दिया। धनुष का दाहिना भाग आकाश में गया, जो रामेश्वरम में धनुषकोटि नाम से प्रख्यात है। बायां पाताल में गया और बीच का टुकड़ा यहां गिरा।’

 

मंदिर के महंत का दावा है कि जिस पीपल के वृक्ष से धनुष लगा हुआ है, वो भी 550 साल से ज्यादा पुराना है। अब इस धनुष की लंबाई पूर्व की ओर बढ़ती जा रही है।

महंत कहते हैं, ‘यहां एक कुंड है पातालगंगा। धनुष जब गिरा तो उसकी आवाज से जमीन फट गई। ये कुंड हमारे क्षेत्र के लिए एक सूचक है कि इस बार बारिश और फसल कैसे होगी। कुंड का लेवल जितना ऊपर रहता है, फसल-बारिश उतनी ही अच्छी होती है। उसके पानी का लेवल नीचे जाना अशुभ माना जाता है।’

 

सीता स्वयंवर के बाद दशरथ राम को राजा बनाना चाहते थे, लेकिन कैकेयी ने उनके लिए 14 साल का वनवास मांग लिया। वनवास मिलने के बाद राम सबसे पहले श्रृंगवेरपुर धाम, यानी आज के प्रयागराज पहुंचे। राम की निषादराज से यहीं मुलाकात हुई थी। राम ने यहीं आराम किया और बाद में केवट ने राम, सीता और लक्ष्मण को नदी पार कराई।

नदी पार कर राम जहां पहुंचे, वहां भारद्वाज मुनि अपने आश्रम में यज्ञ कर रहे थे। भारद्वाज आश्रम के पुजारी कलानिधि गोस्वामी बताते हैं, ‘महर्षि भारद्वाज ने राम से रुकने के लिए कहा, लेकिन राम ने कहा कि ये जगह अयोध्या से काफी पास है। यहां रहा तो लोग मिलने आते रहेंगे। इसके बाद ही भारद्वाज ने उन्हें चित्रकूट जाने की सलाह दी थी।’

रावण का वध करने के बाद फिर यहां लौटे राम
कलानिधि गोस्वामी बताते हैं, ‘राम, रावण का वध करने के बाद अयोध्या लौट रहे थे तो एक बार फिर महर्षि भारद्वाज के आश्रम आए थे। भारद्वाज मुनि ने राम को बताया था कि रावण एक ब्राह्मण था और उन पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा है। वे पहले संगम की त्रिवेणी में जाकर स्नान करें, इसके बाद ही आश्रम में प्रवेश करें। राम ने स्नान किया और फिर अंदर आए।’

आश्रम के आसपास करीब 80 मंदिर हैं। इसमें दो सुरंगनुमा गुफा भी हैं। इसमें एक भारद्वाज मुनि के गुरु याज्ञवल्क्य मुनि का आश्रम है। इस गुफा में याज्ञवल्क्य मुनि की छोटी प्रतिमा भी है। यहां आने और जाने के अलग-अलग रास्ते हैं। दूसरी गुफा के ऊपरी भाग में राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान की मूर्ति हैं। पुजारी बताते हैं कि यहां सीता ने सोना-चांदी दान किया था।

 

वनवास काटने के लिए राम सबसे पहले चित्रकूट आए थे। माना जाता है कि राम ने 12 साल यहीं बिताए थे। राम यहां आए तो सबसे पहले वाल्मीकि ऋषि से मिले और पूछा कि उन्हें कहां रहना चाहिए। वाल्मीकि ने जवाब दिया, "चित्रकूट गिरी करहु निवासु, जहा तुम्हार सब भात सुपासू"। ये चौपाई गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखी है।

भरत राम को मनाने चित्रकूट ही पहुंचे थे। इनका जहां मिलन हुआ, उसे भरत मिलाप मंदिर के नाम से जाना जाता है। यहां चित्रकूट के कामदगिरि परिक्रमा मार्ग के जरिए पंहुचा जा सकता है। परिक्रमा मार्ग 5 किलोमीटर लंबा है। यहां के खोही गांव से पहले भरत मिलाप मंदिर पड़ता है।

इस मंदिर के पुजारी शिववरन सिंह ने बताया, ‘चित्रकूट में राम 11 साल, 6 महीने, 27 दिन रुके थे। मिलन के दौरान भरत यहां गिर गए तो राम उन्हें उठाने लगे। इसी दौरान उनके पांव, धनुष, घुटने के चिह्न इन चट्टानों में बन गए थे। ये निशान आज भी मौजूद हैं।’

भरत मंदिर के महंत दिव्या जीवन दास महाराज बताते हैं, ‘वनवास के दौरान राम यहां आए और मंदाकिनी नदी को प्रणाम कर स्नान किया। महर्षि अत्रि मुनि के आश्रम गए, जहां उनकी पत्नी सती अनुसुईया ने माता सीता को अंग वस्त्र दिए थे।’

 

राम, लक्ष्मण और सीता वनवास के दौरान पंचवटी भी आए थे, जो आज के नासिक में है। पंचवटी गोदावरी नदी के तट पर 5 किमी तक फैला है। इसे तपोवन भी कहा जाता है। पंचवटी का अर्थ है पांच बरगद के पेड़। पंचवटी की शुरुआत सीता गुफा से होती है। सीता अग्नि कुंड आखिरी पड़ाव है।

सीता गुफा
मान्यता है कि इस गुफा को राम के कहने पर लक्ष्मण ने सीता के लिए बनाया था। लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काट दी तो उसके दो भाई खर और दूषण के अलावा 10 हजार राक्षस राम और लक्ष्मण से लड़ने आए। तब सीता को सुरक्षित रखने के लिए ये गुफा बनाई गई थी।

 

सीता गुफा के अंदर जाने का रास्ता बहुत संकरा है। गुफा की ऊंचाई 2.5 से 3 फीट है। अंदर दो कमरे हैं। पहले कमरे में राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तियां हैं। दूसरे कमरे में शिवलिंग है।

यहां के पुजारी मनोज महाजन बताते हैं, 'राम, सीता और लक्ष्मण ने काफी समय तपोवन में बिताया। दंडकारण्य जंगल बहुत घना था, इसलिए गुफा की पहचान के लिए राम ने बरगद के पांच पेड़ लगाए थे, ताकि वे कभी गुफा का रास्ता न भटक जाएं। इसलिए इसे पंचवटी कहते हैं।'

पर्णकुटी
पर्णकुटी वही जगह है, जहां सीता का हरण हुआ था। यहां पहुंचने का रास्ता आज भी घने जंगलों से घिरा है। पंडित रोहित राजहंस और उनके पिता कई साल से पर्ण कुटी की सेवा कर रहे हैं।

रोहित बताते हैं, 'सीता पर्ण कुटी में रहती थीं। रावण सन्यासी बनकर भिक्षा मांगने के लिए यहीं आया था। इसी जगह से सीता को उठाकर लंका ले गया था। पर्ण कुटी के सामने गोदावरी नदी की एक पतली सी धार बह रही है। वहीं लक्ष्मण रेखा है। त्रेता युग में यहीं अग्नि रेखा हुआ करती थी।’

 

पर्णकुटी के पास ही गोदावरी नदी बहती है। मान्यता है कि लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटकर नदी में फेंकी थी। इसीलिए नदी के दूसरी तरफ बने शहर को 'नासिक' कहा गया।

लक्ष्मण शेषनाग अवतार
पर्ण कुटी से कुछ दूर ही लक्ष्मण मंदिर है। यह भारत में लक्ष्मण का अकेला ऐसा मंदिर है, जहां उनके शेषनाग अवतार की पूजा होती है। माना जाता है कि इसी जगह पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक और कान काटा था। यह जगह गोदावरी संगम के पास है।

राम तीर्थ
मान्यता है कि ये वही जगह हैं, जहां राम के कहने पर सीता अग्नि में विलीन हो गई थीं। यहीं उनका माया रूप भी प्रकट हुआ था। असल में रावण ने माया रूप का ही हरण किया था। यहां के पुजारी विनायक दास बताते हैं, 'यहां भगवान राम और माता सीता स्नान करने आते थे। इस जगह कपिला नदी और गोदावरी नदी का संगम है।

रामचंद्र वनवास को आए, तब उन्होंने माता सीता को आदेश दिया कि राक्षसों का नाश होने तक अपना मूल स्वरुप अग्नि में गुप्त रखो। ब्रह्मा, विष्णु और शिव को साक्षी रखकर सीता माता अग्नि में गुप्त हो गईं।

राम ने माता सीता का मायावी स्वरूप निकाला। अग्नि देवता ने माता सीता के मूल रूप को पार्वती मां के पास छोड़ दिया था। मायावी रूप का नाम वेदवती था। वेदवती को पंचवटी में पर्ण कुटी में रखा गया था। रावण ने इसी मायावी सीता का हरण किया था।'

 

सीता हरण के बाद राम दो महीने का सफर कर कर्नाटक के रामदुर्ग पहुंचे। राम बेलगांव से करीब 90 और रामदुर्ग से 20 किमी दूर जंगलों में सीता की तलाश कर रहे थे, इसी दौरान उनकी मुलाकात शबरी से हुई।

आज ये जगह ‘शबरी कोला’ या ‘शबरी आश्रम’ के नाम से जानी जाती है। यहां मां शबरी का मंदिर भी है। मंदिर की सेवा करने वालों में रिटायर्ड स्कूल टीचर यातनुर भी हैं। वे कन्नड़ में लिखी Kumudendu Ramayana के हवाले से बताते हैं, ‘भील समुदाय से आने वाली शबरी का असली नाम 'श्रमणा' था। वे अभी के छत्तीसगढ़ की रहने वाली थीं।'

'शबरी की शादी से पहले उनके पिता ने 200 पशुओं की बलि दी थी। इससे शबरी नाराज हो गईं और शादी से एक दिन पहले घर छोड़कर कर्नाटक में दंडकारण्य वन में रहने लगीं।’

यातनुर के मुताबिक, ‘शबरी मातंग ऋषि की सेवा करना चाहती थीं, लेकिन भील जाति की होने के कारण ऐसा संभव नहीं था। वे ऋषियों के पास तो नहीं जा पाती थीं, लेकिन सुबह जल्दी उठकर आश्रम और नदी तक जाने वाला रास्ता साफ कर देती थीं। रास्ते से कांटों को चुन लेती थीं, बालू और फूल बिछा देती थीं।'

'एक दिन ऋषि मातंग ने उन्हें ऐसा करते देख लिया। वे बेहद प्रसन्न हुए और उनका अंतिम समय आया तो उन्होंने शबरी को बुलाकर कहा कि वे अपने आश्रम में राम की प्रतीक्षा करें। वे उनसे मिलने जरूर आएंगे। शबरी ने 85 साल की उम्र तक राम का इंतजार किया था।’

यातनुर कन्नड़ रामायण की एक और कहानी सुनाते हैं। इसके मुताबिक, ‘राम मिले तो शबरी ने उन्हें खाने के लिए बेर दिए। वे देने से पहले हर बेर चख रहीं थीं, जिससे राम-लक्ष्मण को सिर्फ मीठे बेर ही मिलें। लक्ष्मण ने शबरी के बेर नहीं खाए। रावण के साथ हुए युद्ध के दौरान जब लक्ष्मण मेघनाद के बाण का शिकार हुए तो इन्हीं बेर की बनी हुई संजीवनी बूटी उनके काम आई थी।’

शबरी की भक्ति से खुश होकर राम ने उन्हें 9 नवधा भक्ति उपदेश दिया था। आशीर्वाद के बाद शबरी ने उनके चरणों में ही प्राण त्याग दिए। शबरी एक ज्योति के रूप में यहां से स्वर्ग गई थीं।

आश्रम में मौजूद है हजारों साल पुराना बेर का पेड़
शबरी आश्रम में हमारी मुलाकात मंदिर की पुजारन सुवर्ण पाटिल से हुई। वे पिछले 40 साल से दिन में दो बार शबरी मां की महाआरती कर रही हैं। उनके पति मंदिर के ट्रस्टी हैं। सुवर्ण बताती हैं कि आश्रम में एक बेर का पेड़ है। माना जाता है कि ये हजारों साल पुराना है।

 

शबरी आश्रम में मौजूद बेर का पेड़। हालांकि, ये हरा-भरा होने के बावजूद अब फल नहीं देता।

मंदिर के गर्भगृह में शबरी का रौद्र रूप भी
मंदिर के बाहरी हिस्से में एक ज्योति स्तंभ भी मौजूद है। यहां लोग तिल का तेल चढ़ाते हैं। इसी तेल का इस्तेमाल मां की अखंड ज्योति को प्रज्ज्वलित रखने के लिए किया जाता है। यहां शबरी को पार्वती का रूप भी माना जाता है।

मंदिर के गर्भगृह में देवी शबरी की रौद्र रूप प्रतिमा भी है। इसमें उनके एक हाथ में त्रिशूल, एक में खड्ग, एक में डमरू और एक में खप्पर मौजूद है। उनके एक पैर के नीचे राक्षस का सिर है।

 

बेंगलुरु से 342 और होसपेठ से 20 किलोमीटर दूर हंपी को पहले किष्किंधा नगरी कहा जाता था। ये वही जगह है, जहां राम और सुग्रीव मिले और बाद में राम ने बालि का वध किया।

राम के निशान खोजते हुए हम कर्नाटक के रामदुर्ग से हंपी पहुंचे। शबरी से मिलने के बाद राम और लक्ष्मण यहीं आए थे। यहां हमारी मुलाकात हंपी के गाइड मंजुनाथ गौड़ा से हुई। मंजुनाथ कर्नाटक गाइड एसोसिएशन के प्रेसिडेंट भी हैं।

मंजुनाथ के मुताबिक, ‘वाल्मीकि रामायण में बताया गया है कि किष्किंधा पर वानर जनजाति का राज था। राम यहां पहुंचे तो बालि यहां का राजा था। उसने अपने भाई सुग्रीव को सिंहासन से हटाकर राज्य से निष्काषित कर दिया था।'

'सुग्रीव अपने मित्र हनुमान के साथ मातंग पहाड़ी पर छिपे हुए थे। राम-लक्ष्मण पहुंचे, तो सुग्रीव को लगा कि उन्हें बालि ने उसे मारने के लिए भेजा है। हालांकि, हनुमान उन्हें पहचान गए। हनुमान दोनों को कंधे पर बिठाकर सुग्रीव से मिलाने ले आए। सुग्रीव ने सीता को ढूंढने का वादा किया तो राम ने उन्हें राज्य वापस दिलाने का।’

इस इलाके में आज भी एक गुफा मौजूद है, जिसे लोग सुग्रीव गुफा कहते हैं। सुग्रीव की गुफा विट्ठल मंदिर के रास्ते में तुंगभद्रा नदी के तट पर है।

 

सुग्रीव गुफा के बाहर चट्टानों पर कई मीटर दूर तक मोटी रेखा बनी हैं। मान्यता है कि ये रेखा सीता के नीचे फेंके गए वस्त्र के निशान हैं।

राम और सुग्रीव ने यहीं बालि वध और मां सीता को खोजने कि योजना बनाई थी। आज भी गुफा में एक शिला मौजूद है, जिस पर राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान बने हैं।

राम ने बालि का वध कर दिया तो सुग्रीव का राज्याभिषेक तुंगभद्रा नदी पर हुआ। इसी स्थल पर आगे चलकर कोदंडराम मंदिर बना। ये दुनिया का इकलौता मंदिर है, जहां राम और सीता के साथ हनुमान नहीं, बल्कि सुग्रीव की हाथ जोड़े हुए प्रतिमा है। हंपी में अंजनेय पहाड़ी है, जहां हनुमान का जन्म हुआ। यहां ऋषिमुख पर्वत है, जहां हनुमान पहली बार राम और लक्ष्मण से मिले थे।

 

किष्किंधा, यानी हंपी के बाद हम भारत के आखिरी छोर रामेश्वरम पहुंचे। हंपी से रामेश्वरम की दूरी 953.4 किलोमीटर है। यहां हमारी मुलाकात वैरागी मठ के महामंडलेश्वर सीताराम दास से हुई।

पिछले 40 साल से रामेश्वरम में रहने वाले सीताराम दास बताते हैं, ‘लंका पर विजय हासिल करने के लिए भगवान राम ने इसी जगह समुद्र की रेत से शिवलिंग बनाकर भोलेनाथ की पूजा की थी।

इससे प्रसन्‍न होकर भगवान शिव यहां ज्योति के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने राम को जीत का आशीर्वाद दिया। उन्होंने इस जगह को ‘श्री रामेश्वरम’ नाम दिया। इसके बाद प्रभुराम के अनुरोध पर वे ज्‍योतिर्लिंग के रूप में यहीं स्थापित हुए।’

सीताराम दास आगे कहते हैं, ‘रामेश्वरम शहर से करीब डेढ़ मील उत्तर-पूर्व में गंधमादन पर्वत है। हनुमान ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिए छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए यहीं पर विशाल सेना तैयार की। इस पर्वत पर एक सुंदर मंदिर है, जहां श्रीराम के चरण-चिह्नों की पूजा की जाती है। इसे पादुका मंदिर कहते हैं।’

धनुषकोटि और रामसेतु
रामेश्वरम के बाद हम धनुषकोटि की ओर बढ़े। यहां हमारी मुलाकात पंडित चंद्रशेखर शर्मा से हुई। तमिल धर्म साहित्य के विद्वान चंद्रशेखर के पिता रामेश्वरम मंदिर के मुख्य पुजारी रह चुके हैं। चंद्रशेखर ने बताया कि यहां से तकरीबन 22 किलोमीटर दूर भारत की आखिरी सड़क के अंतिम छोर पर धनुषकोटि है। ये हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार का द्वीप है।

कहा जाता है कि भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पहले इसी जगह से पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिस पर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची। बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर ये रामसेतु तोड़ दिया। 18 किलोमीटर लंबे सेतु के अवशेष आज भी समुद्र में दिखाई देते हैं।

चक्रवात में बर्बाद हो गया धनुषकोटि
1964 के चक्रवात से पहले, धनुषकोटि एक उभरता हुआ पर्यटन और तीर्थ स्‍थल था। यहां से सीलोन (अब श्रीलंका) की दूरी सिर्फ 18 मील है। इसमें से अब 3 मील भारत में और 15 मील श्रीलंका में है। 1964 से पहले धनुषकोटि और श्रीलंका के थलइमन्‍नार के बीच यात्रियों और सामान को ढोने के लिए कई साप्‍ताहिक फेरी सेवाएं चलती थीं।

उस दौरान यहां एक रेलवे स्टेशन भी था, जो 1964 के चक्रवात में नष्‍ट हो गया। उन दिनों यहां एक होटल, कपड़ों की दुकानें और धर्मशालाएं, एक छोटा रेलवे अस्‍पताल, एक पोस्‍ट ऑफिस और मछली पालन विभाग का एक ऑफिस भी था। यह भी चक्रवात में तबाह हो गया। रामेश्वरम आने वाले ज्यादातर टूरिस्ट यहां घूमने जरूर आते हैं।

 

हनुमान ने लंका में सीता को ढूंढ लिया तो वे राम को खबर देने रामेश्वरम लौट आए। लंका दहन से पहले सीता ने उन्हें अपनी चूड़ामणि दी थी। राम उसी से पहचान पाए कि हनुमान, जिनसे मिले वो सीता ही थीं। रामसेतु के जरिए समुद्र पार कर राम की सेना सुबेल पर्वत पर डेरा जमाए हुए थी। विभीषण यहीं राम से मिलने आए थे।

मान्यता के मुताबिक, श्रीलंका में मौजूद दुनुविला वह जगह है जहां से राम ने रावण पर ब्रह्मास्त्र छोड़ा था। श्रीलंका में जहां राम और रावण का युद्ध हुआ था, उस जगह को युद्धगनावा नाम से जाना जाता है। रामायण की कहानी के मुताबिक, युद्ध के बाद ब्राह्मण रीति-रिवाजों से रावण का अंतिम संस्कार किया गया था।

आज भी गुफाओं में रावण का शरीर होने की मान्यता
श्रीलंका में एक कथा और प्रचलित है कि नाग जाति के लोगों ने रावण के शरीर को कुछ जड़ी-बूटियों का लेप लगाकर सुरक्षित रख लिया था। रावण के शरीर को कुछ गहरी गुफाओं में छिपाकर रखा गया था। उन्हें भरोसा था कि अगर संजीवनी बूटी की बदौलत लक्ष्मण दोबारा जीवित हो सकते हैं तो उन्हीं जड़ी-बूटियों से रावण को भी जिंदा किया जा सकता है।

ऐसा दावा किया जाता है कि रावण का पार्थिव शरीर ममी के रूप में आज भी इन गुफाओं में सुरक्षित है।

राग्गला की गुफाओं में रावण का खजाना
कोलंबो से करीब 200 किलोमीटर दूर एक छोटा सा शहर राग्गला है। आज के दौर में ये शहर टी-गार्डन, यानी चाय के बागान के लिए मशहूर है, लेकिन इन खूबसूरत वादियों में रावण से जुड़े बहुत से रहस्य आज भी जिंदा हैं।

श्रीलंकाई सरकार के दस्तावेज के मुताबिक, जिस जगह पर आज छोटी-छोटी बस्तियां हैं, वहां कभी रावण का आलीशान महल था। यह कहा जाता है कि रावण का खजाना इन गुफाओं में छिपा है।

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